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प्रेमचंद और मेरा बचपन | प्रेमचंद की कहानियों की मेरे जीवन में प्रासंगिकता


 बचपन से ही कहानियां पढ़ने का शौक था। शुरुआत राज कॉमिक्स और डायमंड कॉमिक्स के किरदारों को पढ़ते हुए हुई। कभी नागराज को सपने में देखा तो कभी दिन में चाचा चौधरी के साथ सैर की। लेकिन असली साहित्य से परिचय प्रेमचंद ने कराया। कक्षा 2 या 3 में पहली बार प्रेमचंद की "ईदगाह" और "पंच परमेश्वर" पढ़ी। उस वक़्त से प्रेमचंद को पढ़ना शुरू किया। और उत्तर भारत में हिंदी की पुस्तकों में आपको प्रेमचन्द की 3-4 कहानियां तो मिल ही जाएंगी। जब कक्षा 7 में प्रेमचंद की बोध कहानी पढ़ी तो लगा कि पैसे से बड़ी भी एक दौलत होती है, जो ईमानदारी से कमाई जाती है। कक्षा 9 तक सिर्फ प्रेमचंद को पढ़ा उनको जाना कक्षा 9 में जब उनका जीवन परिचय NCERT की हिंदी की किताब में पढ़ा। उन्हें जानने के क्रम में पता चला कि उनके गांव का नाम लमही है जो बनारस से कुछ किलोमीटर दूर है और पता चला उनकी कालजयी रचनाओं के बारे में। "दो बैलों की कथा" पढ़ते हुए लगा क्या जानवरो में भी वो मानवता है जो आज हम इंसानो में नही है? क्या वो अपनापन आज अपने तक ही सिमटता जा रहा है? 

प्रेमचन्द की कहानियों में भारतीय ग्रामीण जीवन की एक छवि है जो उनके रहन-सहन को तो बताती है साथ ही उनकी परेशानियों को भी रेखांकित करती है। 

फिर कक्षा 11 में  "नमक का दारोगा" पढ़ी और गर्व हुआ उस दारोगा की ईमानदारी पर जिसने अपनी नौकरी पूरी ईमानदारी से निभाई और सेठ को अदालत के कठघरे तक लाया। आखिर में उसे इस ईमानदारी का इनाम भी मिला लेकिन सेठ द्वारा। आज के समाज में यह उम्मीद करना भी निष्फल है। उन्हीं दिनों एक बार कानपुर से घर लौटते हुए पैसेंजर ट्रेन के एक डिब्बे में बैठे-बैठे "पूस की रात" पढ़ी और लगा कि इससे बेहतर और कौन लिख सकता है।

और उसी वर्ष मुझे एक खजाना सा मिला। इटावा में वार्षिक पुस्तक मेला लगता है और वहां "प्रेमचंद की दुर्लभ कहानियां" मिली। उसमें पहली कहानी "आल्हा और उधल"की थी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक दृश्य बनता था आज से कुछ 5-6 साल पहले तक :जेठ की दुपहरी हो और घर में बिजली नही है। दूर कहीं किसी घर में काम हो रहा है और ट्रेक्टर खड़ा है शायद ईंटें उतर रही हैं। और उसी ट्रेक्टर पर चल रही है आल्हा। जिसमें गायक बता रहा है आल्हा की तलवार के बारे में। ऐसे ही कई दृश्य याद आते हैं आलहा को सुनते हुए। उस किताब में मेरी पसंदीदा कहानी थी "होली की छुट्टी"। कैसे एक नवनियुक्त अध्यापक अपने घर जाने की जद्दोजहद कर रहा होता है और आखिर होली की छुट्टी पर घर जाते वक्त उसकी ट्रेन छूट जाती है। और फिर वो शुरू करता है पैदल सफर अपने गांव की ओर। रास्ते में उसे याद आते है वो बचपन के दिन जब वो गुड़ चुरा के खाया करता था। और आखिर में कुछ मुश्किलों के बाद वो पहुंचता है अपने गांव। 

मैंने कहीं पढ़ा था कि 

साहित्य हमें जीना सिखाता है
 और प्रेमचंद की कहानियां हमें सच में जीना सिखाती हैं।

प्रेमचंद और मेरा बचपन | प्रेमचंद की कहानियों की मेरे जीवन में प्रासंगिकता प्रेमचंद और मेरा बचपन | प्रेमचंद की कहानियों की मेरे जीवन में प्रासंगिकता Reviewed by Dhruval on 2:51 AM Rating: 5

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